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कोऊ दिन उठ गयो मेरा हाथ

किसी ने सही ही कहा है, 'लड़की जो भड़की तो बिजली कड़की...' एक दुल्हन अपने पति को धमकी देते हुए कहती है कि उसे गुस्सा ना दिलाना! गुस्सा दिलाने पर वो क्या क्या कर सकती है, इसी को इस ब्रज लोकगीत में बयां किया गया है...


कोऊ दिन उठ गयो मेरा हाथ
बलम तोहे ऐसा मारूँगी
ऐसा मारूँगी बलम तोहे ऐसा मारूँगी
कोऊं दिन...

चकला मारूँ, बेलन मारूँ, फुँकनी मारूँगी
जो बालम तेरी मैया बचावै
वाकी चुटिया उखाड़ूँगी
कोऊं दिन...

थाली मारूँ, कटोरी मारूँ, चम्मच मारूँगी
जो बालम तेरी बहना बचावै, वाकी चुनरी फाड़ूंगी
कोऊं दिन...

लाठी मारूँ डंडा मारूँ थप्पड़ मारूँगी
जो बालम मेरे ससुुरा बोल उठें, वाकी मूँछे उखाड़ूँगी
कोऊं दिन...

इंटे मारूं, ढेला मारूं, पत्थर मारूंगी
जो तेरे भैया बोल उठो, वाकी ऐंठ निकालूंगी
कोऊं दिन...


ये गीत आज के दौर में थोड़ा अजीब और आक्रामक लग सकता है लेकिन कुछ साल पहले तक ब्रज क्षेत्र में यह गीत शादी ब्याहों में पक्के तौर पर गाया जाता था. इस गीत के माध्यम से महिलाएं अपने प्रेम का इजहार, गुस्से के प्रदर्शन के साथ किया करतीं थीं.

एक दादीजी बताती हैं, "कुछ सालों पहले एक शहरी जमाई बाबू के सामने जब ये गाना गाया तो गुस्से में मंडप छोड़ कर जाने लगें. बहुत समझाने बुझाने के बाद उनका गुस्सा शांत हुआ."

अपने ब्याह की बात याद करते हुए वो कहती हैं, "उस ज़माने में जब हम लोग सीधे तौर पर अपने पति का नाम भी नहीं ले सकते थें, वो ब्याह का ही एक मौका होता था जब हम अपने सारे दिल की बात खुले तौर पर उन्हें कह दें. कितना प्रेम छिपा था, इस मारने की धमकी में. लेकिन अब कितने लोग बचे हैं जो इसके पीछे के प्यार को पहचाने!"

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