विकास के नाम पर विस्थापन नई बात नहीं है। जल जंगल जमीन का टूटना और विस्थापितों की ज़िंदगियों में मुश्किलों का आना जारी है। एक के बाद एक नई समस्याएं आ रही हैं। सब कुछ नष्ट हो रहा है। विस्थापितों की अपनी ज़मीनों में बाहर से आए लोग बस जाते है और वे बेचारे अपने ही क्षेत्र में पराए...
इसी परिस्थिति को दर्शाते हुए अपने ही काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से शोध छात्र रहे बड़े भैया अनुज लुगुन जी की कविता अघोषित उलगुलान. उलगुलान माने आंदोलन. ये गीत एक प्रयास है. प्रयास, पूंजीपतियों और बाज़ार के शोषण से जूझने वाले लोगों का. क्या जल, जंगल, ज़मीन से समझौता किए बिना विकास का कोई दूसरा रास्ता अख्तियार नहीं किया जा सकता है?
अल सुबह दान्डू का काफ़िला
रुख़ करता है शहर की ओर
और साँझ ढले वापस आता है
परिन्दों के झुण्ड-सा,
अजनबीयत लिए शुरू होता है दिन
और कटती है रात
अधूरे सनसनीखेज क़िस्सों के साथ
कंक्रीट से दबी पगडंडी की तरह
दबी रह जाती है
जीवन की पदचाप
बिल्कुल मौन !
वे जो शिकार खेला करते थे निश्चिंत
ज़हर-बुझे तीर से
या खेलते थे
रक्त-रंजित होली
अपने स्वत्व की आँच से
खेलते हैं शहर के
कंक्रीटीय जंगल में
जीवन बचाने का खेल
शिकारी शिकार बने फिर रहे हैं
शहर में
अघोषित उलगुलान में
लड़ रहे हैं जंगल
लड़ रहे हैं ये
नक्शे में घटते अपने घनत्व के खिलाफ़
जनगणना में घटती संख्या के खिलाफ़
गुफ़ाओं की तरह टूटती
अपनी ही जिजीविषा के खिलाफ़
इनमें भी वही आक्रोशित हैं
जो या तो अभावग्रस्त हैं
या तनावग्रस्त हैं
बाकी तटस्थ हैं
या लूट में शामिल हैं
मंत्री जी की तरह
जो आदिवासीयत का राग भूल गए
रेमण्ड का सूट पहनने के बाद ।
कोई नहीं बोलता इनके हालात पर
कोई नहीं बोलता जंगलों के कटने पर
पहाड़ों के टूटने पर
नदियों के सूखने पर
ट्रेन की पटरी पर पड़ी
तुरिया की लावारिस लाश पर
कोई कुछ नहीं बोलता
बोलते हैं बोलने वाले
केवल सियासत की गलियों में
आरक्षण के नाम पर
बोलते हैं लोग केवल
उनके धर्मांतरण पर
चिंता है उन्हें
उनके 'हिन्दू’ या 'ईसाई’ हो जाने की
यह चिंता नहीं कि
रोज कंक्रीट के ओखल में
पिसते हैं उनके तलबे
और लोहे की ढेंकी में
कूटती है उनकी आत्मा
बोलते हैं लोग केवल बोलने के लिए।
लड़ रहे हैं आदिवासी
अघोषित उलगुलान में
कट रहे हैं वृक्ष
माफियाओं की कुल्हाड़ी से और
बढ़ रहे हैं कंक्रीटों के जंगल ।
दान्डू जाए तो कहाँ जाए
कटते जंगल में
या बढ़ते जंगल में ।
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