एक औरत अपनी सखियों से बसंत ॠतु के आने से खिल उठी प्रकृति की सुंदरता को बताती है. सरसों का सरसना हो या अलसी का अलसाना. चाहे धरती का हरसाना हो या फ़िर कलियों का मुस्काना. खेत, तन और मन का इंद्रधनुष की तरह रँगना, आँखों का कजराना, बगिया का खिल उठना, और अंत में वियोग की स्थिति इस लोकगीत में व्यक्त जनमानस की भावना को कलात्मक अभिव्यक्ति प्रदान करती है. प्रस्तुत लोकगीत में बसंत ॠतु के आगमन पर प्रकृति में होने वाले परिवर्तन का सजीव वर्णन चित्रित किया गया है. पूरी उम्मीद है कि आपको पसंद आएगा...
सावन आइ गये मनभावन, बदरा घिर-घिर आवै ना !
बदरा गरजै बिजुरी चमकै, पवन चलति पुरवैया ना !
सावन...
रिमझिम-रिमझिम मेहा बरसै, धरती काँ नहवावै ना !
सावन...
दादुर, मोर, पपीहा बोलै, जियरा मोर हुलसावै ना !
सावन...
जगमग-जगमग जुगुनू डोलै, सबकै जियरा लुभावै ना !
सावन...
लता, बेल सब फूलन लागीं, महकी डरिया-डरिया ना !
सावन...
उमगि भरे सरिता सर उमड़े, हमरो जियरा सरसै ना !
सावन...
संकर कहैं बेगि चलो सजनी, बँसिया स्याम बजावै ना !
सावन...
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