वसंत ऋतु दरवाज़े पर दस्तक दे रही है. वसंत ऋतु की अपनी खूबसूरती और अपना आनंद है.
भंवरों का गुंजायमान हो या कोयल की कुहू- कुहू लेकिन ये सब ज़्यादा समय तक नहीं टिकता. वसंत महीनों इंतजार करने के बाद आता है लेकिन कुछ ही समय में चला जाता है. हालांकि अब शहरी क्षेत्रों में वसंत की प्राकृतिक छंटा विरले ही देखने को मिलती है. आप इस गीत को प्रतीकात्मक रूप में भी देख सकते हैं. इन्हीं सब बातों को भोजपुरी की मीठी भाषा में कुछ यूं लिखा है सत्यनारायण केशरी 'सौरभ' जी ने...
आहट देत रहे फगुनाहट,
दौरि दुआरि ले झांकि के अइलीं ।
भौंरा के गीत रहे भरमावत,
बाहर ना कोई गावत पइलीं ॥
पीव ना कूकल कोइली कूकलि,
कू कहि के हम खुब लजइलीं ।
साल लगाई बसंत ई आईल,
आइल ना पिव धोखे में गइलीं ॥
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