लड़की का जन्म लेना, घर में बोझ के समान माना जाता रहा है. हिन्दुस्तान के कई हिस्सों में गरीब घर की लड़कियों को रईस उम्रदराज व्यक्ति के हाथों शादी के नाम पर बेच दिया जाता था. इस प्रकार का शोषण दृश्य अदृश्य प्रकार से आज भी कई जगहों में व्याप्त है. भोजपुरी के शेक्सपियर कहे जाने वाले भिखारी ठाकुर जी ने लड़की की इस वेदना को अपने नाटक बेटी बेचवा में बड़ी मार्मिकता से दर्शाया है. पेश है इसका बेटी विलाप का अंश जिसमें एक बेटी जो अपने पिता द्वारा एक उम्रदराज आदमी को बेच दी गई है, अपने पिता को उलाहना देते हुए अपना दुख बयान कर रही है...
गिरिजा-कुमार!, करऽ दुखवा हमार पार;
ढर-ढर ढरकत बा लोर मोर हो बाबूजी।
पढल-गुनल भूलि गइलऽ, समदल भेंड़ा भइलऽ;
सउदा बेसाहे में ठगइलऽ हो बाबूजी।
केइ अइसन जादू कइल, पागल तोहार मति भइल;
नेटी काटि के बेटी भसिअवलऽ हो बाबूजी।
रोपेया गिनाई लिहलऽ, पगहा धराई दिहलऽ;
चेरिया के छेरिया बनवलऽ हो बाबूजी।
साफ क के आँगन-गली, छीपा-लोटा जूठ मलिके;
बनि के रहलीं माई के टहलनी हो बाबूजी।
गोबर-करसी कइला से, पियहा-छुतिहर घइला से;
कवना करनियाँ में चुकली हों बाबूजी।
बर खोजे चलि गइलऽ, माल लेके घर में धइलऽ;
दादा लेखा खोजलऽ दुलहवा हो बाबूजी।
अइसन देखवलऽ दुख, सपना भइल सुख;
सोनवाँ में डललऽ सोहागावा हो बाबूजी।
बुढऊ से सादी भइल, सुख वो सोहाग गइल;
घर पर हर चलववलऽ हो बाबूजी।
अबहूँ से करऽ चेत, देखि के पुरान सेत; डोला
काढ़ऽ, मोलवा मोलइहऽ मत हो बाबूजी।
घूठी पर धोती, तोर, आस कइलऽ नास मोर;
पगली पर बगली भरवलऽ हो बाबूजी।
हँसत बा लोग गॅइयाँ के, सूरत देखि के सँइयाँ के;
खाइके जहर मरि जाइब हम हो बाबूजी।
खुसी से होता बिदाई, पथल छाती कइलस माई;
दूधवा पिआई बिसराई देली हो बाबूजी।
लाज सभ छोडि़ कर, दूनो हाथ जोडि़ कर;
चित में के गीत हम गावत बानीं हो बाबूजी।
प्राणनाथ धइलन हाथ, कइसे के निबही अब साथ;
इहे गुनि-गुनि सिर धूनत बानी हो बाबूजी।
बुद्ध बाड़न पति मोर, चढ़ल बा जवानी जोर;
जरिया के अरिया से कटलऽ हो बाबूजी।
अगुआ अभागा मुँहलागा अगुआन होके;
पूड़ी खाके छूड़ी पेसि दिहलसि हो बाबूजी।
रोबत बानी सिर धुनि, इहे छछनल सुनि;
बेटी मति बेंचक दीहऽ केहू के हो बाबूजी।
आपन होखे तेकरो के, पूछे आवे सेकरों के;
दीहऽ मति पति दुलहिन जोग हो बाबूजी।
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