झारखंड रत्न और पद्मश्री मधु मंसूरी हँसमुख द्वारा लिखा गया यह गीत एक आवाज़ है, जो आज भी भारत में जंगलों और पहाड़ों के माध्यम से आदिवासियों, मूल या स्वदेशी निवासियों के रूप में गूँजती है. परियोजनाएँ जिनके कारण वे बड़े पैमाने पर विस्थापन का सामना कर रहे है और जो उनके अस्तित्व के आधार की जड़ों को नष्ट कर रही है… यह गीत हमें यह पूछने पर मजबूर करती है कि आख़िर विकास के भगवान किसके पक्ष में हैं?
गाँव छोडब नही, जंगल छोडब नही,
माय माटी छोडब नही लडाय छोडब नही।
बाँध बनाए, गाँव डुबोए, कारखाना
बनाए ,
जंगल काटे, खदान खोदे , सेंक्चुरी
बनाए,
जल जंगल जमीन छोडी हमिन कहा
कहा जाए,
विकास के भगवान बता हम कैसे
जान बचाए॥
जमुना सुखी, नर्मदा सुखी, सुखी
सुवर्णरेखा,
गंगा बनी गन्दी नाली, कृष्णा काली रेखा,
तुम पियोगे पेप्सी कोला, बिस्लरी का पानी,
हम कैसे अपना प्यास बुझाए, पीकर कचरा पानी?॥
पुरखे थे क्या मूरख जो वे जंगल को
बचाए,
धरती रखी हरी भरी नदी मधु
बहाए,
तेरी हवसमें जल गई धरती, लुट गई हरियाली,
मचली मर गई, पंछी उड गई जाने किस दिशाए ॥
मंत्री बने कम्पनी के दलाल हम से
जमीन छीनी,
उनको बचाने लेकर आए साथ में
पल्टनी
हो… अफसर बने है राजा
ठेकेदार बने धनी,
गाँव हमारी बन गई है उनकी
कोलोनी॥
बिरसा पुकारे एकजुट होवो छोडो ये
खामोशी,
मछवारे आवो, दलित आवो, आवो
आदिवासी,
हो खेत खालीहान से जागो
नगाडा बजाओ,
लडाई छोडी चारा नही सुनो
देस वासी॥
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